श्रीकृष्णाष्टकम्

श्रियाश्लिष्टो विष्णु: स्थिरचरवपुर्वेदविषयो

धियां साक्षी शुद्धो हरिरसुरहन्ताब्जनयन:

गदी शंखी चक्री विमलवनमाली स्थिररुचि:

शरण्यो लोकशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय: 1

यत: सर्वं जातं वियदनिलमुख्यं जगदिदं

स्थितौ नि:शेषं योऽवति निजसुखांशेन मधुहा।

लये सर्वं स्वस्मिन् हरति कलया यस्तु स विभु: ।।

शरण्यो लोकशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय: 2

असूनायम्यादौ यमनियममुख्यै: सुकरणैर्निरुध्येदं

चित्तं हृदि विलयमानीय सकलम् ।

यमीड्यं पश्यन्ति प्रवरमतयो मायिनमसौ ।

शरण्यो लोकशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय: 3

पृथिव्यां तिष्ठन् यो यमयति महीं वेद न धरा

यमित्यादौ वेदो वदति जगतामीशममलमम् ।

नियन्तारं ध्येयं मुनिसुरनृणां मोक्षदमसौ ।

शरण्यो लोकशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय: 4

महेन्द्रादिर्देवो जयति दितिजान् यस्य बलतो

न कस्य स्वातन्त्र्यं क्वचिदपि कृतौ यत्कृतिमृते।

कवित्वादेर्गर्वं परिहरति योऽसौ विजयिन:

शरण्यो लोकशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय: 5

विना यस्य ध्यानं व्रजति पशुतां सूकरमुखां

विना यस्य ज्ञानं जनिमृतिभयं याति जनता ।

विना यस्य स्मृत्या कृमिशतजनिं याति स विभु:

शरण्यो लोकशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय: 6

नरातंकोत्तंक: शरणशरणो भ्रान्तिहरणो

घनश्याम: वामो व्रजशिशुवयसोऽर्जुनसख:

स्वयम्भूर्भूतानां जनक उचिताचारसुखद:

शरण्यो लोकशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय: 7

यदा धर्मग्लानिर्भवति जगतां क्षोभकरणी

तदा लोकस्वामी प्रकटितवपु: सेतुधृगज:

सतां धाता स्वच्छो निगमगणगीतो व्रजपति:

शरण्यो लोकशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय: 8

इति हरिरखिलात्माराधित: शंकरेण

श्रुतिविशदगुणोsसौ मातृमोक्षार्थमाद्य: ।

यतिवरनिकटे श्रीयुक्त आविर्बभूव

स्वगुणवृत उदार: शंखचक्राब्जहस्त: ॥9॥

॥इति श्री कृष्णाष्टकम्॥

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क्षमापन स्तोत्र

क्षमापन स्त्रोत का उद्देश्य किसी भी पूजा के बाद भगवान से क्षमा माँगना है. हम मनुष्यों से प्रभु की आराधना मे त्रुटिवश जो भी अपराध हो जाते हैं उसकी क्षमा याचना आवश्यक है.

आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् ।
पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥
मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर ।
यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे ॥
जपच्छिद्रं जपश्चिद्रं यच्छिद्रं शांतिकर्मणि ।
सर्वंभवतु मेऽछिद्रं ब्राह्मणानां प्रसादत: ॥
अपराध सहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया ।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर ॥
ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि यन्न्यूनमधिकं कृतम ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव प्रसीद परमेश्वर ॥
कर्मणा मनसा वाचा तव पूजा मया कृता ।
तेन तुष्टिं समासाद्य प्रसीद परमेश्वर ॥

प्रत्येक आरती के बाद इस स्तोत्र का पाठ करें । देवियों की आरती के बाद इसका गान करते समय परमेश्वर शब्द के स्थान पर 'परमेश्वरी' शब्द का उपयोग करें 

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हनुमानबाहुक (Hanuman Bahuk)

संवत 1664 विक्रमाब्द्के लगभग गोस्वामी तुलसीदासजीकी बाहुओंमें वात-व्याधि की गहरी पीड़ा उत्पन्न हुई थी और फोड़े-फुंसियोंके कारण सारा शरीर वेदनाका स्थान-सा बन गया था । औषध,यन्त्र,मन्त्र,त्रोटक आदि अनेक उपाय किये गये, किन्तु घटनेके बदले रोग दिनोंदिन बढ़ता ही जाता था। असहनीय कष्टोंसे हताश होकर अन्तमें उसकी निवृत्तिके लिये गोस्वामी तुलसीदासजीने हनुमानजीकी वन्दना आरम्भ की । अंजनीकुमारकी कृपासे उनकी सारी व्यथा नष्ट हो गयी । यह वही 44 पद्योंका 'हनुमानबाहुक' नामक प्रसिद्ध स्तोत्र है । असंख्य हरिभक्त श्रीहनुमानजीके उपासक निरन्तर इसका पाठ करते है और अपने वाच्छित मनोरथको प्राप्त करके प्रसन्न होते है। संकटके समय इस सद्य:फलदायक स्तोत्रका श्रद्धा-विश्वासपूर्वक पाठ करना रामभक्तोंके लिये परमानन्ददायक सिद्ध हुआ है ।
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                          गोस्वामी श्रीतुलसीदासकृत हनुमानबाहुक
छप्पय
सिंधु-तरन, सिय-सोच-हरन, रबि-बालबरन-तनु ।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहुको काल जनु ॥
गहन-दहन-निरदहन-लंक नि:संक, बंक-भुव ।
जातुधान-बलवान-मान-मद-दवन पवन्सुव ॥
कह तुलसिदास सेवत सुलभ, सेवक हित संतत निकट ।
गुनगनत,नमत,सुमिरत,जपत,समन सकल-संकट-बिकट ॥1॥
स्वर्न-सैल-सन्कास कोटि-रबि-तरुन-तेज-धन ।
उर बिसाल, भुजदंड चंड नख बज्र बज्रतन ॥
पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन ।
कपिस केस,करकस लँगूर, खल-दल बल भानन ॥
कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति बिकट ।
संताप पाप तेहि पुरुष पहिं सपनेहुँ नहिं आवत निकट ॥2॥
झूलना
पंचमुख-छमुख-भृगुमुख्य भट-असुर-सुर ,
सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो ।
बाँकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली,
बेद बंदी बदत पैजपूरो ॥
जासु गुननाथ रघुनाथ कह, जासु बल,
बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो ।
दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है
पवनको पूत रजपूत रूरो ॥3॥
घनाक्षरी
भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन-
अनुमानि सिसुकेलि कियो फेरफार सो ।
पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन,
क्रमको न भ्रम, कपि बालक-बिहार सो ॥
कौतुक बिलोकि लोकपाल हरि हर बिधि
लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खभार सो ।
बल कैधौं बीररस, धीरज कै, साहस कै,
तुलसी सरीर धरे सबनिको सार सो ॥4॥
भारतमें पारथके रथकेतु कपिराज,
गाज्यो सुनि कुरुराज दल हलबल भो ।
कह्यो द्रोन भीषम समीरसुत महाबीर,
बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ॥
बानर सुभाय बालकेलि भूमि भानु लागि,
फलँग फलाँगहूँतें घाटि नभतल भो ।
नाइ-माइ माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जोहैं ,
हनुमान देखे जगजीवनको फल भो ॥5॥
गोपद पयोधि करि होलिका ज्यों लाई लंक ,
निपट निसंक परपुर गलबल भो ।
द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर,
कंदुक-ज्यों कपिखेल बेल कैसो फल भो ॥
संकटसमाज असमंजस भो रामराज
काज जुग-पूगनिको करतल पल भो ।
साहसी समत्थ तुलसीको नाह जाकी बाँह,
लोकपाल पालनको फिर थिर थल भो ॥6॥
कमठकी पीठि जाके गोड़निकी गाड़ैं मानो
नापके भाजन भरि जलनिधि-जल भो ।
जातुधान-दावन परावनको दुर्ग भयो,
महामीनबास तिमि तोमनिको थल भो ॥
कुंभकर्न-रावन-पयोदनाद-ईंधनको
तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान-
सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ॥7॥
दूत रामरायकोसपूत पूत पौनको, तू
अंजनीको नंदन प्रताप भूरि भानु सो ।
सीय-सोच-समनदुरित-दोष-दमन,
सरन आये अवन, लखनप्रिय प्रान सो ॥
दसमुख दुसह दरिद्र दरिबेको भयो,
प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।
ज्ञान-गुनवान बलवान सेवा सावधान,
साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ॥8
दवन-दुवन-दल भुवन-बिदित बल,
बेद जस गावत बिबुध बंदीछोर को ।
पाप-ताप-तिमिर तुहिन-विघटन-पटु,
सेवक-सरोरुह सुखद भानु भोरको ॥
लोक-परलोकतें बिसोक सपने न सोक,
तुलसीके हिये है भरोसो एक ओरको ।
रामको दुलारो दास बामदेवको निवास,
नाम कलि-कामतरु केसरी-किसोरको ॥9
महाबल-सीम, महाभीम, महाबानइत,
महाबीर बिदित बरायो रघुबीरको ।
कुलिस-कठोरतनु जोरपरैं रोर रन ,
करुना-कलित मन धारमिक धीरको ॥
दुर्जनको कालसो कराल पाल सज्जन्को ,
सुमिरे हरनहार तुलसीकी पीरको ।
सीय-सुखदायक दुलारो रघुनायकको ,
सेवक सहायक है साहसी समीरको ॥10
रचिबेको बिधि जैसे, पालिबेको हरि, हर
मीच मारिबेको, ज्याइबेको सुधापान भो ।
धरिबेको धरनि, तरनि तम दलिबेको ,
सोखिबे कृसानु, पोषिबेको हिम-भानु भो ॥
खल-दुख-दोषिबेको, जन-परितोषिबेको ,
माँगिबो मलीनताको मोदक सुदान भो ।
आरतकी आरति निवारिबेको तिहुँ पुर ,
तुलसीको साहेब हठीलो हनुमान भो ॥11
सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि ,
सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँकको ।
देवी देव दानव दयावने ह्यै जोरैं हाथ ,
बापुरे बराक कहा और राजा राँकको ॥
जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद,
ताकै जो अनर्थ सो समर्थ एक आँकको ।
सब दिन रूरो परै पुरो जहाँ-तहाँ ताहि ,
जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँकको ॥12
सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि,
लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।
लोक परलोकको बिसोक सो तिलोक ताहि,
तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ॥
केसरीकिसोर बंदीछोरके नेवाजे सब,
कीरति बिमल कपि करुनानिधानकी ।
बालक-ज्यों पालहैं कृपालु मुनि सिद्ध ताको ,
जाके हिये हुलसति हाँक हनुमानकी ॥13
करूना निधान, बलबुद्धिके निधान, मोद-
महिमानिधान, गुन-ज्ञानके निधान हौ ।
बामदेव-रूप, भूप रामके सनेही, नाम
लेत-देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ॥
आपने प्रभाव, सीतानाथके सुभाव सील,
लोक-बेद-बिधिके बिदुष हनुमान हौ ।
मनकी, बचनकी, करमकी तिहुँ प्रकार,
तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ॥14
मनको अगम, तन सुगम किये कपीस ,
देवकाज महाराजके समाज साज साजे है ।
-बंदीछोर रनरोर केसरीकिसोर ,
जुग-जुग जग तेरे बिरद बिरजे हैं ।
बीर बरजोर, घटि जोर तुलसीकी ओर
सुनि सकुचाने साधु, खलगन गाजे हैं ।
बिगरी सँवार अंजनीकुमार किजे मोहिं ,
जैसे होत आये हनुमानके निवाजे हैं ॥15
सवैया
जानसिरोमनि हौ हनुमान सदा जनके मन बास तिहारो ।
ढारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ॥
साहेब सेवक नाते ते हातो कियो सो तहाँ तुलसीको न चारो ।
दोष सुनाये तें आगेहुँको होशियार ह्यै हों मन तौ हिय हरो ॥16
तेरे थपे उथपै थिरको कपि जे घर घाले ।
तेरे निवाजे गरीबनिवाज बिराजत बैरिनके उर साले ।
संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरीके-से जाले ।
बूढ़ भये, बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ॥17
सिंधु तरे, बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंकसे बंक मवा से ।
तैं रन-केहरि केहरिके बिदले अरि-कुंजर छैल छवा से ॥
तोसों समत्थ सुसाहेब सेइ सहै तुलसी दुख दोष दवासे ।
बानर बाज बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से ॥18
अच्छ - बिमर्दन कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो ।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन्न-से कुंजर केहरि-बारो ॥
राम-प्रताप-हुतासन, कच्छ,बिपच्छ,समीर समीरदुलारो ।
पापतें,सापतें,ताप तिहुँतें सदा तुलसी कहँ सो रखवारो ॥19
घनाक्षरी
जानत जहान हनुमानको निवाज्यौ जन,
मन अनुमानिबलि, बोल न बिसारिये ।
सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी,
साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये ॥
अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति,
मोदक समीरके दुलारे रघुबीरजूके,
बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ॥20
बालक बिलोकि, बलि, बारेतें आपनो कियो,
दीनबंधु दया कीन्हीं निरूपाधि न्यारिये ।
रावरो भरोसो तुलसीके, रावरोई बल,
आस रावरीयै, दास रावरो बिचारिये ॥
बड़ो बिकराल कलि, काको न बिहाल कियो,
माथे पगु बलीको, निहारि सो निवारिये ।
केसरीकिसोर, रनरोर, बरजोर बीर,
बाँहुपीर राहुमातु ज्यौं पछारि मारिये ॥21
उथपे थपनथिर थपे उथपनहार ,
केसरीकुमार बल आपनो सँभारिये ।
रामके गुलामनिको कामतरु रामदूत,
मोसे दीन दुबरेको तकिया तिहारिये ॥
साहेब समर्थ तोसों तुलसीके माथे पर,
सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।
पोखरी बिसाल बाँहु, बलि बारिचर पीर,
मकरी ज्यौं पकरिकै बदन बिदारिये ॥22
रामको सनेह, राम साहस लखन सिय,
रामकी भगति, सोच संकट निवारिये ।
मुद-मरकट रोग-बारिनिधि हेरि हारे,
जीव-जामवंतको भरोसो तेरो भारिये ॥
कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम-पब्बयतें,
सुथल सुबेल भालु बैठिकै बिचारिये ।
महाबीर बाँकुरे बराकी बाँहपीर क्यों न,
लंकिनी ज्यों लातघात ही मरोरि मारिये ॥23
लोक-परलोकहुँ तिलोक न बिलोकियत,
तोसे समरथ चप चारिहुँ निहारिये ।
कर्म, काल, लोकपाल, अग-जग जीवजाल,
नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये ॥
खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर,
तुलसी सो देव दुखी देखियत भारिये ।
बात तरूमूल बाँहुसूल कपिकच्छु-बेलि,
उपजी सकेलि कपिकेलि ही उखारिये ॥24
करम-कराल-कंस भूमिपालके भरोसे,
बकी बकभगिनी काहूतें कहा डरैगी ।
बड़ी बिकराल बालघातिनी न जात कहि,
बाँहुबल बालक छबीले छोटे छरैगी ॥
आई है बनाइ बेष आप ही बिचारि देख,
पाप जाय सबको गुनीके पाले परैगी ।
पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपिकान्ह तुलसीकी,
बाँहपीर महाबीर, तेरे मारे मरैगी ॥25
भालकी कि कालकी कि रोषकी त्रिदोषकी है,
बेदन बिषम पाप-ताप छलछाँहकी ।
करमन कूटकी कि जंत्रमंत्र बूटकी,
पराहि जाहि पापिनी मलीन मनमाँहकी ॥
पैहहि सजाय नत कहत बजाय तोहि,
बावरी न होहि बानि जानि कपिनाँहकी ।
आन हनुमानकी दोहाई बलवानकी,
सपथ महाबीरकी जो रहै पीर बाँहकी ॥26
सिंहिका सँहारि बल, सुरसा सुधारि छल,
लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है ।
लंक परजारि मकरी बिदारि बारबार,
जातुधान धारि धूरिधानी करि डारी है ॥
तोरि जमकातरि मदोदरि कढ़ोरि आनी,
रावनकी रानी मेघनाद महँतारी है ।
भीर बाँहपीरकी निपट राखी महाबीर,
कौनके सकोच तुलसीके सोच भारी है 27
तेरो बालकेलि बीर सुनि सहमत धीर ,
भूलत सरीरसुधि सक्र-रबि-राहुकी ।
तेरी बाँह बसत बिसोक लोकपाल सब ,
तेरो नाम लेत रहै आरति न काहुकी ॥
साम दान भेद बिधि बेदहू लबेद सिधि ,
हाथ कपिनाथहीके चोटी चोर साहुकी ।
आलस अनख परिहासकै सिखावन है ,
एते दिन रही पीर तुलसीके बाहुकी ॥28
टुकनिको घर-घर डोलत कँगाल बोलि,
बाल ज्यों कृपाल नतपाल पालि पोसो है ।
कीन्ही है सँभार सार अंजनीकुमार बीर,
आपनो बिसारिहैं न मेरेहू भरोसो है ॥
इतनो परेखो सब भाँति समरथ आजु,
कपिराज साँची कहौं को तिलोक तोसो है ।
सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास,
चीरीको मरन खेल बालकनिको सो है ॥29
आपने ही पापतें त्रितापतें कि सापतें ,
बढ़ी है बाँहबेदन कही न सहि जाति है ।
औषध अनेक जंत्र-मंत्र-टोटकादि किये,
बादि भये देवता मनाये अधिकाति है ॥
करतार, भरतार, हरतार, कर्म, काल,
को है जगजाल जो न मानत इताती है ।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो रामदूत,
ढील तेरी बीर मोहि पीरतें पिराति है ॥30
दूत रामरायको, सपूत पूत बायको ,
समत्थ हाथ पायको सहाय असहायको ।
बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत,
रावन सो भट भयो मुठिकाके घायको ॥
एते बड़े साहेब समर्थको निवाजो आज,
सीदत सुसेवक बचन मन कायको ।
थोरी बाँहपीरकी बड़ी गलानी तुलसीको,
कौन पाप कोप , लोप प्रगट प्रभायको ॥31
देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग,
छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं ।
पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाम,
रामदूतकी रजाइ माथे मानि लेत हैं ॥
घोर जंत्र मंत्र कूट कपट कुरोग जोग ,
हनुमान आन सुनि छाडत निकेत हैं ।
क्रोध कीजे कर्मको प्रबोध कीजे तुलसीको ,
सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ॥32
तेरे बल बानर जिताये रन रावनसों ,
तेरे घाले जातुधान भये घर-घरके ।
तेरे बल रामराज किये सब सुरकाज ,
सकल समाज साज सजे रघुबरके ॥
तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत ,
सजल बिलोचन बिरंचि हरि हरके ।
तुलसीके माथेपर हाथ फेरो कीसनाथ,
देखिये न दास दुखी तोसे कनिगरके ॥33
पालो तेरे टूकको परेहू चूक मूकिये न,
कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये ।
भोरानाथ भोरेही सरोष होत थोरे दोष,
पोषि तोषि थापि आपनो न अवडेरिये ॥
अंबु तू हौं अंबुचर, अंब तू हौं डिंभ , सो न ,
बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये ।
बालक बिकाल जानि पाहि प्रेम पहिचानि ,
तुलसीकी बाँह पर लामीलूम फेरिये ॥34
घेरि लियो रोगनि कुजोगनि कुलोगनि ज्यौं,
बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस,
रोष बिनु दोष, धूम-मूल मलिनाई है ॥
करुनानिधान हनुमान महाबलवान,
हेरि हँसि हाँकि फूँकि फौजें तैं उड़ाई है ।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि,
केसरीकिसोर राखे बीर बरिआई है ॥34
सवैया
रामगुलाम तुही हनुमान
गोसाँइ सुसाँइ सदा अनुकूलो ।
पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू
पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ॥
बाँहकी बेदन बाँहपगार
पुकारत आरत आनँद भूलो ।
श्रीरघुबीर निवारिये पीर
रहौं दरबार परो लटि लूलो ॥36
घनाक्षरी
कालकी करलता करम कठिनाई कीधौं ,
पापके प्रभावकी सुभाय बाय बावरे ।
बेदन कुभाँति सो सहि न जाति राति दिन,
सोई बाँह गही जो गही समीरडावरे ॥
लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि,
सिंचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे ।
भूतनिकी आपनी परायेकी कृपानिधान,
जानियत सबहीकी रीति राम रावरे ॥37
पायँपीर पेट्पीर बाँहपीर मुँहपीर्।
जरजर सकल सरीर पीरमई है ।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह ,
मोहिपर दवरि दमानक सी दई है ॥
हौं तो बिन मोलके बिकानो बलि बारेही तें,
ओट रामनाम्की ललाट लिखि लई है ।
कुंभजके किंकर बिकल बूड़े गोखुरनि ,
हाय रामराय ऐसी हाल कहूँ भई है ॥38
बाहुक-सुबाहु नीच लीचर-मरीच मिलि ,
मुँहपीर-केतुजा कुरोग जातुधान हैं ।
राम नाम जपजाग कियो चहों सानुराग,
काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान है ॥
सुमिरे सहाय रामलखन आखर दोऊ,
जिनके समूह साके जागत जहान हैं ।
तुलसी सँभारि ताड़का-सँहारि भारी भट,
बेधे बरगदसे बनाइ बानवान हैं ॥39
बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो ,
रामनाम लेत माँगि खात टूकटाक हौं ।
परयो लोकरीतिमें पुनीत प्रीति रामराय ,
मोहबस बैठो तोरि तरकितराक हौं ।
खोटे-खोटे आचरन आचरत अपनायो ,
अंजनीकुमार सोध्यो रामपनि पाक हौं ॥
तुलसी गोसाईँ भयो भोड़े दिन भूलि गयो ,
ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ॥40
असन-बसन-हीन बिषम-बिषाद-लीन,
देखि दीन दूबरो करै न हाय-हाय को ।
तुलसी अनाथसो सनाथ रघुनाथ कियो ,
दियो फल सीलसिंधु आपने सुभायको ॥
नीच यहि बीच पति पाइ भरुहाइगो ,
बिहाइ प्रभु-भजन बचन मन कायको ।
तातें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस ,
फुटि-फूटि निकसत लोन रामरायको ॥41
जिओं जग जानकीजीवनको कहाइ जन ,
मरिबेको बारानसी  बारि सुरसरिको ।
तुलसीके दुहूँ हाथ मोद्क है ऐसे ठाउँ,
जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरिको ।
मोको झूठो साँचो लोग रामको कहत सब ,
मेरे पीर दुसह सरीरतें बिहाल होत ,
सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करिको ॥42
सितापति साहेब सहाय हनुमान नित,
हित उपदेसको महेस मानो गुरूकै ।
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय,
तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुरकै ॥
ब्याधि भूतजनित उपाधि काहू खलकी ,
समाधि कीजे तुलसीको जानि जन फुरकै ।
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ ,
रोगसिंधु क्यों न डारियत गाय खुरकै ॥43
कहों हनुमानसों सुजान रामरायसों ,
कृपानिधान संकरसों सावधान सुनिये ।
हरष विषाद राग रोष गुन दोषमई,
बिरची बिरंचि सब देखियत दुनिये ।
माया जीव कालके करमके सुभायके ,
करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये ।
तुम्हतें कहा न होय हाहा सो बुझैये मोहि ,
हौं हुँ रहों मौन ही बयो सो जानि लुनिये ॥44
                  इति शुभम